।। अथ सन्ध्या ।।
शुद्धि — प्रथम बाह्य शुद्धि अर्थात् शौच एवं स्नान आदि करें, यदि स्नान करने में अक्षमता हो तो हाथ—मुख आदि अंग स्वच्छ करके , जहाँ वायु का आवागमन उचित हो, कम्बल अथवा कुशासन आदि पर पीठ, कण्ठ और सिर को सीधा रखते हुए सुखद स्थिति में बैठकर आभ्यन्तर शुद्धि, मन तथा बुद्धि के शान्त और एकाग्रता हेतु प्राणायाम करें।
प्राणायाम विधि — भीतर के वायु को बल से बाहर निकालकर यथाशक्ति बाहर ही रोकें, जब घबराहट होने लगे तब धीरे—धीरे भीतर लेकर कुछ देर भीतर ही रोकें, यह एक प्राणायाम हुआ और इस प्रकार कम से कम तीन प्राणायाम करें। नासिका को हाथ से न पकड़ें।
शिखा बन्धन — निम्न गायत्री मन्त्र से शिखा बाँधें एवं ईश्वर से प्रार्थना करें —
ओ३म्। भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्।। य० अ० ३६/ मं० ३।।
।। अथ आचमनमन्त्रः ।।
ओं शन्नो देवी रभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभि स्रवन्तु नः।। यजु० ३६। मं०१२
इस मन्त्र से दाहिने हाथ की हथेली में जल लेकर तीन आचमन करें, आचमन करते हुए मुख से किसी प्रकार की ध्वनि न हो। पश्चात् दोनों हाथ धो लें।
अब बाँये हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की मध्यमा तथा अनामिका अंगुली से जल द्वारा मुख एवं नासिका आदि को (पहले दाहिने फिर बाँये) मन्त्र बोलने के पश्चात् स्पर्श करें —
।। अथेन्द्रियस्पर्शमन्त्राः ।।
ओं वाक् वाक्। (वाक्—वाणी) इससे मुख का दक्षिण और वामपार्श्व
ओं प्राणः प्राणः। इससे दक्षिण और वाम नासिका के छिद्र
ओं चक्षुः चक्षुः। इससे दक्षिण और वाम नेत्र
ओं श्रोत्रम् श्रोत्रम्। इससे दक्षिण और वाम श्रोत्र
ओं नाभिः। इससे नाभि
ओं हृदयम्। इससे हृदय
ओं कण्ठः। इससे कण्ठ
ओं शिरः। इससे मस्तक
ओं बाहुभ्यां यशोबलम्। (बाहुभ्यां—दोनों बाहुओं से, यशोबलम्—
यश और बल को) इससे दोनों भुजाओं
के मूल स्कन्ध
ओं करतलकरपृष्ठे। (करतलकरपृष्ठे—हथेली और करपृष्ठ में)
इससे दोनों हाथों के ऊपर तले स्पर्श
करना।
पुनः पूर्वोक्त प्रकार से जल लेकर सिर—नेत्र आदि अङ्गों पर मन्त्र बालने के उपरान्त छीटें देवें—
।। अथेश्वरप्रार्थनापूर्वकमार्जनमन्त्राः ।।
ओं भूः पुनातु शिरसि — ( सिर में )
ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः— ( दोनों नेत्रों में)
ओं स्वः पुनातु कण्ठे — ( कण्ठ में)
ओं महः पुनातु हृदये — ( हृदय में)
ओं जनः पुनातु नाभ्याम् — ( नाभि में )
ओं तपः पुनातु पादयोः — ( दोनों पैर में)
ओं सत्यं पुनातु पुनः शिरसि — ( पुनःसिर में)
ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र — ( सभी अंगप्रत्यंगों में)
इस मन्त्र से सब अङ्गों पर जल छिड़कें।
।। अथ प्राणायाममन्त्राः ।।
ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्।
इन मन्त्रों का मन में उच्चारण एवं अर्थविचार करते हुए पूर्वोक्त प्रकार से कम से कम तीन प्राणायाम करें।
।। अथाघमर्षणमन्त्राः ।।
ओम् । ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।।१।।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।२।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः।।३।।
ऋ० म० १०। सू० १९०। मं० १—३।।
।। अथ आचमनमन्त्रः ।।
ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽ आपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।। यजु० ३६। मं० १२। पुनः इस मन्त्र से तीन आचमन करें।
।। अथ मनसा परिक्रमामन्त्राः।।
ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।२।।
दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरिश्चराजी रक्षिता पितर इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।२।।
प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।३।।
उदीची दिक सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।४।।
ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।५।।
ऊर्ध्वा दिग् बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।६।। (अथर्व० कां०३। सू० २७। मं० १—६)
[ सब मनुष्य सर्वशक्तिमान्, सबके गुरु, न्यायकारी, दयालु और पिता के सदृश पालक परमेश्वर को ही सब दिशाओं में रक्षक समझें, यही इन मन्त्रों का अभिप्राय है ]
।। अथ उपस्थानमन्त्राः।।
ओम् उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम्।
देवन्देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।। १ ।।
(यजु० अ० ३५। मं०१४।।)
उदुत्त्यञ्जातवेदसन्देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्। (यजु० अ० ३३। मं०३१।।)
चित्रन्देवानामुदगादनीकञ्चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावा पृथिवीऽअन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।।३।। (यजु० अ० ७। मं०४२।।)
तच्चक्षुर्देवहितम्पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतञ्जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात् ।।४।। (यजु० अ० ३६। मं० २४।।)
।। अथ गुरुमन्त्रः ।।
ओं भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।। (यजु० अ० ३६। मं० ३।)
।। अथ समर्पणम् ।।
हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।।
।। अथ नमस्कारमन्त्रः ।।
ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। यजु० अ० १६। म० ४१।।
।। इति सन्ध्योपासनविधिः ।।